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कविता

अस्त्र जो सज्जा है

स्कंद शुक्ल


इंद्रधनुष आसमान में दिखलाई पड़ता है
ऊँचाई पर, बादलों की रुई के बीच
सुदंर, सतरंगी अर्धवृत्त
मगर बाण नजर नहीं आते,
संधान करने वाले ने केवल धनु की नुमाइश की है
प्रत्यंचा उतार कर, आकाश के म्यूजियम में
लेकिन एक भी तीर बगल में नहीं सजाया
जानते हो क्यों?
क्योंकि कोई लक्ष्य है ही नहीं
जो साधा गया हो
कोई तीर है ही नहीं
जो मारा गया हो
इस तरह के फैंसी धनुषों से
कुछ नहीं साधा जाता
कुछ नहीं साधा जा सकता
जो धनुष लक्ष्य भेदते हैं
वे इतने खूबसूरत नहीं होते
भद्दे, बदरंग नजर आते हैं
प्रत्यंचा के खिंचाव से झुके हुए
मूठ पर थोड़ा खून लिए हुए।
धनुष की योग्यता खुद में नहीं है
बाणों के अचूक निशाने में है
जो सामने लक्ष्य को अमोघ अंदाज में भेदकर चोट करें
इसलिए ये केवल दिखावटी प्रदर्शन है
तीरंदाजी के किसी अनाड़ी का
क्योंकि जब भी निशाना लगाना नहीं आएगा
जब भी तीर इधर-उधर भटकेंगे
जब भी हाथ डोरी को खींचते हुए काँपेंगे
तो ऐसा ही नुमाइशी धनुष सजाया जाएगा
लक्ष्यों को डर कर टटोलता
बिना प्रत्यंचा और बाणों के साथ।


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